कभी ऐसा ही होता था

हम  बच्चों  सहित स्नेहतीरम समुद्र   तट  की    यात्रा  कर  रात  घर  पहुंचे  थे . सबको भूक लगी थी. एक बहू ने झट एक गंज में  पके चावल में साम्बार मिलाया दूसरे गंज  में  रसम  खाना  और  तीसरे  में  दही  चावल. सभी  बच्चों  को  बुला लिया और  बिठा  लिया  अपने  सामने  वृत्ताकार. एक  के  बाद  एक  हाथ फैलाता  और  एक  कौर  हाथ  में  डाल दिया  जाता  बिलकुल  जैसे  चाट  वाले  गुपचुप  (गोलगप्पे )  अपने  ग्राहकों  को  खिलाते  हैं. इस  तरह  तीनों  प्रकार  के  चावल  खाने  को   दिए  गए.  हमने देखा कि बड़े  लोग  भी  लालायित  होकर  अन्नपूर्णा  के  सामने  हाथ  फैला  रहे  थे.


हमारे संयुक्त परिवारों में कभी यही प्रणाली अपनाई जाती थी. बच्चों के लिए अलग थाली में परोसने की परंपरा नहीं थी. बच्चे बड़े उत्साह से होड़ लगाकर पेट भरा करते थे. मेहनत और समय दोनों की बचत. एक पुरानी परंपरा का पुनः मंचन होते देख हमें रोमांच हो आया और लगा क्यों न हम भी  बच्चों के साथ शामिल हो जावें.

29 Responses to “कभी ऐसा ही होता था”

  1. mahendra mishra Says:

    फिर पुरानी परम्परा को क्यों न अपना लिया जाए…
    बढ़िया संस्मरण और सुन्दर अभिव्यक्ति….आभार

  2. amar Says:

    मनमोहक परम्परा का रोचक वर्णन.

  3. Rekha Srivastava Says:

    सुब्रमनियन जी,

    इस तरह से जो प्यार होता है हमेशा कायम रहता है. बहुत अच्छा लगा ये सहभोज. हमेशा नहीं अब तो हमारी बेटियां बाहर है लेकिन जब भी घर में आते हैं हम सभी एक साथ इसी तरह से खाना खाते हैं. कोई dining टेबल नहीं जमीन में तो नहीं हाँ बैड पर सारे लोग इसी तरह से घेरा बना कर बैठ जाते हैं और फिर एक साथ खाते हैं. इसमें मेरे ही बेटियां ही नहीं उनकी सहेलियां भी शामिल रहती हैं.

  4. dhiru singh Says:

    परम्परा कायम रहे यही कामना है

  5. Rohit Jain Says:

    पुरानी परम्पराओं को ज़िन्दा रखना इस दौर में अत्यंत ज़रूरी है… रोचक वर्णन… प्रस्तुति के लिये धन्यवाद

  6. नीरज जाट जी Says:

    इस भोज में आप नहीं दिख रहे।

  7. renusharma Says:

    aapake photo s dekhkar purane din yaad aa gaye jab dadi jinda thi , hum bachche they or dadi ke samne hath failaya karte they.
    bahut khoob.

  8. ali syed Says:

    सह-भोज की परम्परा का सम्बन्ध ‘अपनत्व’ बनाये रखने से है ,पारस्परिक प्रेम ,सौहार्दय के लिए इस बढ़कर और कोई आयोजन हो भी नहीं सकता ! इसे देख अच्छा लगा !

  9. प्रवीण पाण्डेय Says:

    सहनौभवतु, सहनौभुनक्तु, सहवीर्यं करवावहै……

  10. सतीश सक्सेना Says:

    जब आपका यह लेख पढ़ रहा हूँ मैं एक तमिल परिवार में बैठा हूँ वहां सब लोग इस चित्र को देख बेहद खुश हो गए ! इन सबको अपने बचपन की यादें ताज़ा करदीं !

    अन्नपूर्णा शब्द और उसका महत्व अब कम ही लोगों को याद होगा , आपका यह संक्षिप्त लेख बहुत ही अच्छा लगा , जगह जगह घूमते हुए आप, कभी कभी, हिन्दू संयुक्त परिवारों के यह संस्कारित छींटे ब्लाग जगत को लगा दिया करें इससे थोड़ी शुद्धि हो जाया करेगी !

    हाथ से खिलाये गए भोजन में मिठास, अपनत्व के साथ साथ, चारो तरफ बैठ कर, एक साथ खाते यह पारिवारिक सदस्य एक ऐसा पाठ सीख रहे हैं जो किसी स्कूल में संभव ही नहीं है !
    शुभकामनायें !

  11. रंजना. Says:

    सच कहा आपने….
    यह सौहार्द्र और प्रेम बढ़ने में बड़ा सहायक होता है…

  12. sanjay vyas Says:

    सर अच्छा लगा. कभी ऐसे ही परिवार अपने महल्ले में राजस्थान में ही देख चुका हूँ.परम्पराओं में थोड़ी भिन्नता के साथ.

  13. nirmla.kapila Says:

    इस प्रंपरा को पुन जीवित करने की आवश्यकता है। बहुत अच्छी लगी पोस्ट धन्यवाद।

  14. भारतीय नागरिक Says:

    बहुत अच्छा और सुखद लगा…

  15. vinay vaidya Says:

    रोचक और प्रेरणास्पद !
    आभार ।

  16. ghughutibasuti Says:

    बहुत अपनत्व है इसमें।
    घुघूती बासूती

  17. राज भाटिया Says:

    बहुत सुंदर् लगी आप की यह पोस्ट, चित्र भी बहुत सुंदर विलकुल परिवारिक माहोल मै, बहुत ही अच्छा लगा

  18. vanigeet Says:

    ऐसे संस्मरण कितने पुराने दिनों की याद दिला जाते हैं …!!

  19. arvind mishra Says:

    वाह अन्नपूर्णा के हाथ से भोजन ..कौन एक कौर नहीं लपकना चाहेगा ..जैसे एक बी आर में ही जीवन की तृप्ति मिल गयी हो ….
    चित्र बहुत कुछ कहते हैं ….

  20. S.N.MAsum Says:

    संयुक्त परिवार प्रणाली आज भी सफ़ल रहेगी.

  21. puja Says:

    हमारे यहाँ भी जब तक हम छोटे होते हैं तो माँ के साथ ही थाली में खाते हैं. वो कौर कौर करके खिलाती जाती है. शादी वगैरह में जब घर पे ढेर सारे लोग जुट जाते थे तो अक्सर खिलाने का काम बड़ी दीदी को दे दिया जाता था, वहाँ भी ऐसे ही सब एक साथ बैठ जाते थे. आपकी ये परंपरा देख कर अच्छा लगा.

  22. rahulsingh Says:

    निजी अनुभव क्यों और कैसे सार्वजनिक प्रासंगिक होते हैं. इनकी निजता में कैसे वैयिकता कम और आत्मीयता अधिक हो सकती है. ब्लॉग के पोस्ट इसी तरह निजी डायरी से आगे और किताब, अत्रिकाओं में पहुँचने से पहले वाले हों, यही सार्थक है. आगे यह भी की विषय का चयन और प्रस्तुति अद्वितीय है. सिम्पली Unparallel.

  23. विष्‍णु बैरागी Says:

    आपने बडा उपकार किया यह लिंक भेज कर। ऐसे दृश्‍य तो अब दुर्लभ हो गए हैं। नानी की कहानियॉं भी तो नहीं रहीं अब जो ऐसा कुछ बता सके। बडी देर तक चित्र देखता रहा।

    हम भारतीय परम्‍परावादी हैं। अधिक देर तक अपनी जडों से कट कर नहीं रह सकते। आपके चित्रों ने आशा जगाई कि ऐसे दिन जल्‍दी ही हमें परिवारों में देखने को मिलेंगे।

    हमारे पास जो नहीं होता है, हम उसी की तलाश करते हैं। आज हमारे पास यह पारिवारिकता, यह सामूहिकता नहीं है।

    यह स्‍वर्गीय और अवर्णनीय सुख प्रदान करने क लिए पुन:आभार।

  24. विष्‍णु बैरागी Says:

    सचमुच आनन्‍ददायी।

  25. Dilip Kawathekar Says:

    Vakaee jeevan kaa aanand inhi cheezo me hai.

  26. संजय बैंगाणी Says:

    भरा-पूरा परिवार देख कर अच्छा लगा.

    राजस्थान में और उसके निवासी कहीं भी हो, एक थाली में साथ-साथ खाना खाना पसन्द करते है.

  27. alpana Says:

    चित्रों में देखना ही सुखद लग रहा है तो इस माहोल में होना कितना अधिक सुखद होगा.
    पुरानी परम्पराएँ आपसी प्रेम बढ़ाती थीं ,आज उन्हें पुनर्जीवित करने की और बनाये रखने की आवश्यकता है ..आधुनिकता और तकनीक के विकास ने हमसे बहुत कुछ छीन लिया है.
    –यहाँ UAE mein इस्लामी संस्कृति में अभी भी एक थाल में खाने की परम्परा है .

  28. Zakir Ali Rajnish Says:

    भरे-पूरे परिवार की जीवंत चित्रावलियाँ देखकर मन आह्लादित हो गया।
    ———
    किसने कहा पढ़े-लिखे ज़्यादा समझदार होते हैं?

  29. jc joshi Says:

    हम भारतीय से इंडियन कब हो गए पता ही नहीं चला! आपने पुरानी यादें ताज़ा करा दीं! धन्यवाद्!

टिप्पणी करे